Tuesday, October 2, 2007

सुबह

हर सुबह और हर शाम में ये ही सोचती हूँ कि शायद अगला पहर अच्छा होगा
हर किसी से बात करती हूँ तो सोचती हूँ कि शायद ये मेरा दोस्त होगा
हर घंटी से उम्मीद रखती हूँ कि ये ही वह संदेशा हैं जो मुझे मेरी मंज़िल बताये गा
हर पंछी से पुचाती हूँ हर झोके को खोजती हूँ मन बस मचल जाता अहं और घर को तलाशने लगता हैं

त्रिशंकु के रिश्तेदार से लगते हैं , कभी यहाँ तो कभी वहा मंज़र को मानने लगते हैं।

दीप्ति

No comments: